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राजद्रोही शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी


सन् 1924 में ब्रिटेन के युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए थे तो भारत की आम जनता ने उनके भारत आगमन का बहिष्कार कर दिया । ब्रिटिश सरकार परेशान हो गई क्योंकि वो चाहती थी कि भारत की जनता श्रद्धा – भक्ति के साथ युवराज का आदर – सम्मान करे । ब्रिटिस सरकार यह भली – भाति जानती थी कि भारत की धर्मपरायण जनता अपने धर्माचार्यो के आदेशों का पालन करने को हमेशा तत्पर रहती है, अतः ब्रिटिश सरकार की ओर से पत्र द्वारा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी से अनुरोध किया गया कि वह राजा को भगवान विष्णु का प्रतिनिधि मानने के हिन्दू धर्म के सिद्धांत के अनुसार राजकुमार वेल्स को सम्मान देने का आदेश अपने अनुयायियों को दें । शंकराचार्य जी ने पत्र पढ़ा तथा निर्भय होकर उत्तर दिया, ‘ अंग्रेज विदेशी लुटेरे हैं । वे प्रजा – पालक नहीं हैं । जिन्होंने हमारी मातृभूमि को छल – कपट से गुलाम बना रखा हैं, उन्हें विष्णु का प्रतिनिधि कैसे घोषित किया जा सकता है ? ‘ साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन उनके उत्तर से क्रोधित हो गया । पूज्य शंकराचार्य जी को कारागार में बंद करके उन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया लेकिन शंकराचार्य जी अपनी राष्ट्रभक्ति कर अडिग रहे ।

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नेहरू ने नेताजी को ब्रिटेन का युद्ध अपराधी कहा था !


जवाहर लाल नेहरू ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली को पत्र लिख कर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ब्रिटेन का युद्ध अपराधी बताया था और रूस द्वारा उन्हें पनाह देने को द्रोह और विश्वासघात करार दिया था ।
नेहरू के इस पत्र को विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमलेंदु गुहा ने अपनी पुस्तक ‘ नेताजी सुभाष : आइडियोलाजी एंड डाक्ट्रीन ‘ में प्रकाशित किया है । लेकिन पुस्तक का विमोचन करते हुए पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरामन ने पुस्तक में उद्धत इस पत्र पर असहमति जताई थी, उनका मानना था कि नेहरू की ऐसी भाषा नहीं है और उन्हें लगता है कि उन्होंने ऐसा पत्र नहीं लिखा होगा । श्री वेंकटरमण ने इस पर भी सवाल उठाया था कि नेहरू का पत्र प्रधानमंत्री के लैटरपैड पर नहीं है और जब भी कोई प्रधानमंत्री किसी दूसरे देश के प्रधानमंत्री को पत्र भेजता है तो आधिकारिक रूप से अपने लैटरपैड पर लिखता है ।

रास बिहारी बोस का पत्र सुभाष के नाम

नार्वे में ओस्लो स्थित ‘ इंस्टीट्यूट फॉर एल्टरनेटिव डेवलपमेंट रिसर्च ‘ के निदेशक और इस पुस्तक के लेखक श्री अमलेंदु गुहा ने श्री वंकेटरमन की आपत्ति का उत्तर जोरदार तरीके से देते हुए कहा कि नेहरू ने वास्तव में ऐसा पत्र लिखा था और यह पत्र लंदन के ब्रिटिश अभिलेखागार में सुरक्षित है । उन्होंने कहा कि नेहरू ने यह पत्र सादे कागज पर उस समय लिखा था, जब वह प्रधानमंत्री थे ही नहीं और इसलिए यह सरकारी रिकार्ड में नहीं है ।
विश्व के छह राष्ट्राध्यक्षों के आर्थिक सलाहकार रह चुके प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री अमलेंदु गुहा द्वारा लिखित इस पुस्तक में प्रकाशित पत्र के अनुसार पंडित नेहरू ने लिखा कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को रूस ने अपने यहां प्रवेश करने की इजाजत देकर द्रोह और विश्वासघात किया है । पत्र के अनुसार उन्होंने लिखा था कि रूस चूंकि ब्रिटिश, अमेरिकियों का मित्र राष्ट्र है, इसलिए रूस को ऐसा नहीं करना चाहिए । पत्र में लिखा था कि इस पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए ।

आजाद हिन्द फौज के संस्थापक आर्यन पेशवा राजा महेन्द्र प्रताप

श्री गुहा ने पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि पंडित नेहरू के मन में नेताजी के लिए व्यक्तिगत नापसंदगी थी और वह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को नेताजी के बारे में गोपनीय सूचना देने में नहीं हिचके । प्रस्तावना में कहा गया है कि पंडित नेहरू ने यह पत्र डिक्टेट कराया था, आसफ अली के विश्वस्त स्टेनो शामलाल ने अपने हलफनामे में इसकी पुष्टि भी की है । श्री गुहा ने कहा कि उन्होंने जो लिखा है, उस पर वह कायम है ।

रास बिहारी बोस का पत्र सुभाष के नाम


मेरे प्रिय सुभाष बाबू,
भारत के समाचार पत्र पाकर मुझे यह सुखद समाचार मिला है कि आगामी कांग्रेस सत्र के लिए आप अध्यक्ष चुने गये है । मैं हार्दिक शुभकामनायें भेजता हूँ । अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने में कुछ हद तक बंगाली भी जिम्मेदार थे । अतः मेरे विचार से बंगालियों का यह मूल कर्तव्य बनता है कि वे भारत को आजादी दिलाने में अधिक बलिदान करें ।
…देश को सही दिशा में ले जाने के लिए आज कांग्रेस को क्रांतिकारी मानसिकता से काम लेना होगा । इस समय यह एक विकासशील संस्था है – इसे विशुद्ध क्रांतिकारी संस्था बनाना होगा । जब पूरा शरीर दूषित हो तो अंगों पर दवाई लगाने से कोई लाभ नहीं होता ।
अहिंसा की अंधी वंदना का विरोध होना चाहिये और मत परिवर्तन होना चाहिये । हमें हिंसा अथवा अहिंसा – हर संभव तरीके से अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहिये । अहिंसक वातावरण भारतीय पुरूषों को स्त्रियोचित बना रहा है । वर्तमान विश्व में कोई भी राष्ट्र यदि विश्व में आत्म सम्मान के साथ जीना चाहता है तो उसे अहिंसावादी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये । हमारी कठिनाई यह है कि हमारे कानों में बहुत लम्बे समय से अन्य बातें भर दी गयी है । वह विचार पूरी तरह निकाल दिया जाना चाहिये ।
…मुसलमान कहते है : पीर, अमीर तथा फकीर – ताकि व्यक्ति दुनिया का सामना कर सके । यदि आप फकीर नहीं बन पाते, तो अमीर बन जायें और जीवन को जियें । यदि आप अमीर नहीं बन सकते, तो पीर बन जाइये । इसका अर्थ है कि काफिर को मार डालो और विश्व के लोग तुम्हें या तुम्हारी कब्र को ईश्वर की भांति पूजेंगे ।
… शक्ति आज की वास्तविक आवश्यकता है । इस विषय पर आपको अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिये । डॉ. मुंजे ने अपना मिलेटरी स्कूल स्थापित करके कांग्रेस की अपेक्षा अधिक कार्य किया है । भारतीयों को पहले सैनिक बनाया जाना चाहिये । उन्हें अधिकार हो कि वे शस्त्र लेकर चल सकें । अगला महत्वपूर्ण कार्य हिन्दू – भाईचारा है । भारत में पैदा हुआ मुस्लिम भी हिन्दू है, तुर्की, पर्शिया, अफगानिस्तान आदि के मुसलमानों से उनकी इबादत – पद्धति भिन्न है । हिन्दुत्व इतना कैथोलिक तो है कि इस्लाम को हिन्दुत्व में समाहित कर ले – जैसा कि पहले भी हो चुका है । सभी भारतीय हिन्दू है – हालांकि वे विभिन्न धर्मो में विश्वास कर सकते है । जैसे कि जापान के सभी लोग जापानी है, चाहे वे बौद्ध हों, या ईसाई ।
…हमें यह मालूम नहीं है कि जीवन कैसे जीया जाये और जीवन का बलिदान कैसे किया जाये । यही मुख्य कठिनाई है । इस संदर्भ में हमें जापानियों का अनुसरण करना चाहिये । वे अपने देश के लिए हजारों की संख्या में मरने को तैयार है । यही जागृति हम में भी आनी चाहिये । हमें यह जान लेना चाहिये कि मृत्यु को कैसे गले लगाया जा सकता है । भारत की स्वतंत्रता की समस्या तो स्वतः हल हो जायेगी ।
आपका शुभाकांक्षी,
रास बिहारी बोस
25-1-38 टोकियो

जब गांधी की भ्रामक राजनीतिक सोच के कारण भगवा ध्वज राष्ट्रध्वज न बन सका

जब गांधी की भ्रामक राजनीतिक सोच के कारण भगवा ध्वज राष्ट्रध्वज न बन सका


सन 1924 में कलकत्ता में सम्पन्न अखिल भारतीय संस्कृत सम्मेलन ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज में सनातन संस्कृति का भगवा रंग और भगवान विष्णु की गदा सम्मिलित करने का सुझाव दिया था । उसी वर्ष कांग्रेस के बेलगाँव अधिवेशन में श्री द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर और श्री सी. एफ. एण्ड्रृज ने भी राष्ट्रीय झण्डे में भगवा रंग सम्मिलित करने का परामर्श दिया था, क्योंकि इस रंग से त्याग – भावना की अभिव्यक्ति होती है । इसके अतिरिक्त यह रंग हिन्दू योगियों, संन्यासियों तथा मुसलमान फकीरों, दरवेशों को भी समान रूप से प्रिय रंग है ।

आजाद हिन्द फौज के संस्थापक आर्यन पेशवा राजा महेन्द्र प्रताप

सन 1928 में कुछ सिक्खों ने लाहौर अधिवेशन के समय गांधी से मिलकर राष्ट्रीय झण्डे में अपने धर्म का प्रिय पीला रंग भी सम्मिलित करने की मांग की । इस विचार – वैषम्य की पृष्ठभूमि में 2 अप्रैल, 1931 को कराची में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राष्ट्रीय ध्वज के निर्धारण के लिए सात सदस्यों की एक झण्डा समिति नियुक्त की गयी । डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या को इस समिति का संयोजक बनाया गया । अन्य छह सदस्यों में जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, मास्टर तारा सिंह, मौलाना आजाद , डॉ. एन. एस. हार्डिकर और डी. बी. कालेलकर को शामिल किया गया । इस झण्डा समिति ने सर्वसम्मति से अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए संस्तुति की थी, कि
” राष्ट्रीय ध्वज एक ही रंग का रहे, इस पर हम सभी सहमत हैं । सब हिन्दी लोगों का एक साथ उल्लेख करना हो, तो सबके लिए सर्वाधिक मान्य केसरिया भगवा रंग है । अन्य रंगों से यह अधिक स्वतंत्र स्वरूप का है और इस देश की पूर्व – परम्परा से अपना – सा लगता हैं । ”
किन्तु यह भारतीयों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि झण्डा समिति के इस निर्णय को भ्रामक राजनीतिक सोच रखने वाले मोहनदास गांधी ने अस्वीकृत कर दिया और इस संस्तुति को कार्यान्वित नहीं होने दिया । कांग्रेस कार्यसमिति ने यद्यपि केसरिया रंग के नये राष्ट्रीय ध्वज की रूपरेखा की प्रशंसा की, किन्तु गांधी के मार्गदर्शन में मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर आगे बढ़ते हुए उसने 5 – 6 अगस्त 1931 को भगवे के स्थान पर तिरंगे को ही भारत का राष्ट्रीय ध्वज घोषित कर दिया ।

NATHURAM GODSE LAST SPEECH

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत


अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर “अरब” हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें विष्णु को हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।

मूर्ति पूजा क्यों की जाती है ?

उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र रहा था, इसी कारण देवों, दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 बार युद्ध ‘देवासुर संग्राम’ हुए। देवताओं के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री ज्यन्ती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था कि शुक्र उनके (देवों के) पक्षधर बन जायें, किन्तु शुक्र दैत्यों के ही गुरू बने रहे। यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना, तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गये और वहाँ 10 वर्ष रहे। साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” में लिखा है कि ‘शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब’। अरब में शुक्राचार्य का इतना मान-सम्मान हुआ कि आज जिसे ‘काबा’ कहते है, वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके आराध्य भगवान शिव का ही मन्दिर है। कालांतर में ‘काव्य’ नाम विकृत होकर ‘काबा’ प्रचलित हुआ। अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से ‘जुम्मा’ (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते है।
“बृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योऽसुराणाम्”-जैमिनिय ब्रा.(01-125)
अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”

भारत के लिए आदर्श शिक्षा व्यवस्था – स्वामी विवेकानन्द

अर्थात-(1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ सेअरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है –
” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है ।

NATHURAM GODSE LAST SPEECH

जीवन मेँ नवयोग चेतना

नाथूराम गोड़से द्वारा अदालत में दिए बयान के मुख्य अंश…..

मूर्ति पूजा क्यों की जाती है ?


एक बार भ्रमण करते धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द अलवर राज्य में गये । सम्पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ महाराजा ने स्वामी जी का भव्य स्वागत किया । महाराजा युवक थे एवं पश्चिमी विचारों से कुछ – कुछ प्रभावित भी थे । मूर्ति पूजा में उनकी आस्था नहीं थी । स्वामी जी से वार्तालाप करते समय , उन्होंने व्यंग्य पूर्ण भाषा में पूछा कि मन्दिरों में मूर्ति पूजा क्यों की जाती है ?
स्वामी विवेकानन्द ने महाराजा को बताया कि मूर्ति रूप में ईश्वर की पूजा करना भी उसकी प्राप्ति का एक मार्ग है और इससे कोई हानि भी नहीं है । परन्तु महाराजा इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए । अपने तर्क की पुष्टि के लिए स्वामी जी ने वहा उपस्थित मंत्री से कहा कि वह दीवार में लटका महाराजा का एक चित्र लाएं । मंत्री ने महाराजा का चित्र लाकर स्वामी जी को सौंप दिया । स्वामी जी ने तब मंत्री से कहा कि वह महाराजा के चित्र पर थूके । इस सुझाव मात्र पर ही मंत्री का सिर चकराने लगा । उसने स्वामी जी से कहा कि यह काम करना मेरे लिए असम्भव है ।

भारत के लिए आदर्श शिक्षा व्यवस्था – स्वामी विवेकानन्द

तब स्वामी विवेकानन्द महाराज की ओर मुड़े और उन्हें निर्दिष्ट करते हुए कहा कि जिस प्रकार मंत्री ने महाराजा के केवल एक चित्र पर थूकना अस्वीकार कर दिया जबकि वह एक निर्जीव कागज है , केवल महाराजा का एक प्रतीक मात्र है । ठीक इसी प्रकार मूर्ति पूजा भी एक ऐसा प्रतिकात्मक कार्य मात्र है , जो अंत में सामान्य लोगों को ईश्वर में ध्यान केन्द्रित करने एवं उच्च आध्यात्मिक स्तरों तक पहुंचाने में सहायता करता है ।
संस्कृत भाषा में प्रतिक का अर्थ है ‘ ओर आना ‘ या ‘ समीप पहुँना ‘ । विश्व के सभी धर्मो में उपासना की कई पद्धतियां प्रचलित है । कुछ लोग अपने धर्म गुरूओं की पूजा करते है , तो कुछ लोग आकृति विशेष या प्रकृति की पूजा करते है और कुछ ऐसे भी लोग है जो मनुष्य से उच्चतर प्राणियों देवदूत , देवता , अवतार इत्यादि की पूजा करते है । इन भिन्न – भिन्न पद्धतियों में से भक्तियोग किसी का तिरस्कार नहीं करता । वह इन सब को एक प्रतीक नाम के अन्तर्गत कर प्रतिक पूजा या मूर्ति पूजा कहकर मानता है । ये सब ईश्वर की उपासना नहीं कर रहे है पर प्रतिक की उपासना करते है , जो ईश्वर के समीप है । पर ये प्रतिक पूजा हमें मुक्ति और स्वातंत्र्य के पद पर नहीं पहुँचा सकती । यह तो उन विशेष चीजों को ही दे सकती है जिनके लिए हम उनकी पूजा करते है । किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है जो परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने , उसके कुछ समीप जाने के समान है । यदि कोई मनुष्य अरूंधती तारे को देखना चाहता है , तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है , तब उसको उसके बाद उससे छोटा एक दूसरा तारा दिखाते है । ऐसा करते – करते क्रमशः उसको अरूंधती तक ले जाते है । इसी प्रकार ये भिन्न – भिन्न प्रतिक और प्रतिमाऐं उसे ईश्वर तक पहुंचा देती है ।
दो प्रकार के मनुष्य को किसी प्रतिक या मूर्ति की आवश्यकता नहीं होती – एक तो मानव रूपधारी पशु , जो कभी धर्म का विचार नहीं करता और दूसरा पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति जो इन सब सीढ़ियों को पार कर गया होता है । इन दोनों छोरों के बीच में सबको किसी न किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है । मैं तो कहता हूं कि चित्र की नहीं चरित्र की उपासना करो , व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की पूजा करो । भगवान श्रीराम एक नाम नहीं बल्कि श्रीराम का अर्थ त्याग , आदर्श , करूणा , दया , समता , स्वाभिमान , शौर्य , स्वधर्म के प्रति अपने आप को समर्पिक करना है । भगवान श्रीराम प्रत्येक मनुष्य के लिए आदर्श है । भगवान श्रीकृष्ण , भगवान महावीर , भगवान बुद्ध को किसी भी धर्म या जाति विशेष की परीधि में नहीं रखा जा सकता है । ये तीनों अहिंसा , करूणा , तप व त्याग के प्रतिक है । इसलिए चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करने की आवश्यकता है ।

अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा -वीर नाथूराम गोडसे भाग – एक

अमेरिकी लेखक डेल कार्नेगी लिखते है – जब कभी मैं मानसिक चिंताओं से परेशान होता हूं , मैं अब्राह्म लिंकन के शान्त चित्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करता हूं । इससे मन में शान्तभाव , साहस और नई प्रेरणा आती है । मैं तरोताजा होकर फिर काम में जुट जाता हूं । घर में रखी प्रत्येक मूर्ति या चित्र से एक वातावरण का निर्माण होता है । मनुष्य अपनी आंखों से दिन – प्रतिदिन इन चित्रों या मूर्तियों को देखता है , बार – बार दृष्टि पड़ने से इनका सूक्ष्म प्रभाव सीधे मन पर पड़ता है । इन चित्रों में चित्रित भावनाओं , स्थितियों , मुद्राओं के अनुसार हमारे मन में शुभ – अशुभ विचार , भावनाएं उत्पन्न होती है , वैसी ही मन स्थितियां बनती है । हमारे देवी , देवताओं , वेद , उपनिषद् , रामायण , महाभारत के इतिहास से सम्बन्धित मूर्तियों की प्रत्येक आकृति में , हाव – भाव , मुख – मुद्राओं में , दिव्य संदेश भरे हुए है । उन संदेशों को याद करके , जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए ।
अग्निना अग्निः समिध्यते ।
अग्नि से अग्नि , बड़ी से छोटी आत्मा प्रदीप्त होती है । महान विभूतियों , देवी – देवताओं की मूर्तियों से दीप्तिमान शान्तिदायक प्रेरक वातावरण में रहकर अपनी आत्मा को आलोकित करें ।
……………………….

भारत के लिए आदर्श शिक्षा व्यवस्था – स्वामी विवेकानन्द


शिक्षा से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है । जब से शिक्षा , सभ्यता आदि उच्च वर्ण वालों से धीरे – धीरे जन – साधारण में फैलने लगी , उसी दिन से पश्चिमी देशों की वर्तमान सभ्यता और भारत , मिश्र , रोम आदि की प्राचीन सभ्यता के बीच अन्तर बढ़ने लगा । हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जिस जाति की जनता में विद्या – बुद्धि का जितना अधिक प्रचार है , वह जाति उतनी ही उन्नत है । भारतवर्ष के सत्यनाश का मूल कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या – बुद्धि राजशासन और दम्भ के बल से केवल मुट्ठीभर लोगों के अधिकार में रखी गई है । यदि हमें फिर से उन्नति करनी है तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा , अर्थात जनता में विद्या का प्रचार करना होगा ।

अरे वाह रे मेरे देश के संविधान !अरे वाह रे मेरे देश के संविधान !

आधी सदी से समाज – सुधार की धूम मची हुई है । मैंने दस वर्ष तक भारत के अनेकानेक स्थानों में घूमकर देखा कि देश में समाज – सुधारक समितियों की बाढ़ – सी आई है । परन्तु जिनका रूधिर शोषण करके हमारे ‘ भद्र लोगों ‘ ने यह पदक प्राप्त किया है और कर रहे है , उन बेचारों के लिए एक भी सभा नजर न आई ! मुसलमान लोग कितने सिपाही लाए थे ? यहां अंग्रेज कितने हैं ? चांदी के छह सिक्कों के लिये अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने वाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहां मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षो के मुसलमानी शासनकाल में छह करोड़ मुसलमान , और सौ वर्ष के ईसाई – राज्य में बीस लाख ईसाई कैसे बने ? मौलिकता ने देश को क्यों बिल्कुल त्याग दिया है ? क्यों हमारे सुदक्ष शिल्पी यूरोपवालों के साथ बराबरी करने में असर्मथ होकर दिनों दिन दुर्दशा को प्राप्त हो रहे है ? पुन किस बल से जर्मन कारीगरों ने अंग्रेज कारीगरों के कई सदियों के दृढ़ प्रतिष्ठित आसन को हिला दिया ?
केवल शिक्षा ! शिक्षा ! शिक्षा ! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमते हुए वहां के गरीबों तक के लिये अमन – चैन और शिक्षा की सुविधाओं को देखकर अपने यहां के गरीबों की बात याद आती थी और मैं आंसू बहाता था । यह अन्तर क्यों हुआ ? उत्तर मिला – शिक्षा ! शिक्षा से आत्म – विश्वास आता है और आत्मविश्वास से अन्तर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है ।
इसके लिये विद्या भी सिखानी पड़ेगी । ऐसा कहना तो बड़ा सरल है , पर वह काम में किस तरह लाया जाए ? हमारे देश में हजारों नि:स्वार्थ , दयालु और त्यागी पुरूष हैं । जिस प्रकार वे बिना कोई पारिश्रमिक लिये घूम – घूमकर धर्मशिक्षा दे रहे हैं , उसी प्रकार उनमें से कम से कम आधे लोग उस विद्या के शिक्षक बनाए जा सकते हैं , जिसकी हमें आज सबसे अधिक आवश्यकता है । इस कार्य के लिये पहले प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में एक – एक केन्द्र होना चाहिये , जहां से धीरे – धीरे भारत के सब स्थानों में फैलना होगा ।

नाथूराम गोडसे के शहीद दिवस 15 नवम्बर के अवसर पर, फाँसी लगने से 5 मिनट पूर्व दिया गया उनका दिव्य संदेश

धीरे – धीरे उन मुख्य केन्द्रों में खेती , व्यापार आदि भी सिखाए जाएंगे और उद्योग शालाएं भी खोली जायेगी , जिससे इस देश में शिल्प आदि की उन्नति हो । उन उद्योग शालाओं का माल यूरोप और अमेरिका में बेचने के लिये उन देशों में अभी जैसी समितियां हैं , वैसी और भी स्थापित की जाएंगी । जिस प्रकार पुरूषों के लिये प्रबंध हो रहे हैं , ठीक उसी प्रकार स्त्रियों के लिये भी होना चाहिये , उनके लिये भी केन्द्र खोलने चाहिये । मुझे इस बात का दृढ़ विश्वास है कि जिस सांप ने काटा है , वही अपना विष उठाएगा , इन सब कामों के लिये जिस धन का प्रयोजन हो , वह पश्चिमी देशों से आएगा । इसलिये हमारे धर्म का यूरोप और अमेरिका में प्रचार होना चाहिये । आधुनिक विज्ञान ने ईसाई आदि धर्मो की भित्ति बिल्कुल चूर – चूर कर दी है । इसके सिवाय , विलासिता ने तो धर्मवृत्ति का प्रायः नाश कर डाला है । यूरोप और अमरिका आशा – भरी दृष्टि से भारत की और ताक रहे हैं । परोपकार का यही ठीक समय है , शत्रु के किले पर अधिकार जमाने का यही उत्तम समय है ।
मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं यदि भारतीय नारियां देशी पोशाक पहने भारत के ऋषियों के मुंह से निकले हुए धर्म का प्रचार करें तो एक ऐसी बड़ी तरंग उठेगी जो सारी पश्चिमी भूमि को डुबा देगी । क्या मैत्रेयी , खना , लीलावती , सावित्री और उभयभारती की इस जन्मभूमि में किसी और नारी को यह साहस नहीं होगा ? विस्तार ही जीवन का चिह्न है , और हमें सारी दुनियां में अपने आध्यात्मिक आदर्शो का प्रचार करना होगा । ” उतिष्ठित , जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत् ” – उठो , जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत ।

अरे वाह रे मेरे देश के संविधान !


….अरे वहा रे मेरे देश के नीति निर्धारक और इस देश का इंडियन सम्विधान और यहाँ के नेता सब के सब अंधे-गूंगे हो गए हैं……. पाकिस्तान क्रिकेटर शाहीद अफरीदी ने भारत की तारीफ क्या कर दी कि पाकिस्तान ने अफरीदी को देशद्रोह का नोटिस दे दिया हैं और सुनो आज भारत के मुस्लिम नेता ओवैसी ने क्या कहा हैं कि मैं कभी भी भारत माता की जय नहीं कहूँगा…… सब चुप हैं क्योंकि यहाँ संविधान में हिन्दू को दूसरे नंबर की नागिरता प्राप्त हैं भारत का कानून यहाँ कुछ नहीं बोलने वाला चाहे देश का कुछ भी हो जाये भारत में तो भारत के खिलाफ बोलने वालो की कमी नहीं, जिस देश का खाते हैं उसी देश को नीचा दिखाते हैं और यहाँ का कानून इतना दोगला हैं की चाहे कितना भी भारत के खिलाफ ज़हर उगले पर यहाँ आजाद होकर रह सकते है, क्योंकि अभी तक कन्हैया को J N U पर सुनते आये हैं और कश्मीर की आज़ादी के नारे भी सुने हैं और कश्मीर में isis के झंडे भी दिखाएँ जाते हैं हम फिर भी चुप हैं पर क्या भारत का पूरा सिस्टम ही ख़राब हैं या कुछ करना नहीं चाहते अगर ऐसा ही रहा तो भारत फिर से गुलाम हो जाएगा…… छोटे- छोटे मुद्दों को उठाकर आन्दोलन करने वाले हिन्दू संगठन भी कभी दृढ़निष्ठा से भारत में हिन्दू समाज को समानता का अधिकार दिलाने का, समान नागरिक संहिता लागू कराने का प्रयास नहीं करते ? एक तरफ पाकिस्तान हैं वहाँ का कोई भी नागरिक भारत की तारीफ भी कर दे तो उसे जेल हो जाती हैं और देशद्रोह का केश लगा दिया जाता हैं और भारत में इसका उल्टा हैं आखिर क्यों डरे हो क्या केवल गन्दी राजनीति करनी आती हैं भारत के राजनेताओ को कम से कम दुसरो को देख कर सीख़ लो और ओवैसी तो खुले आम बोलता हैं । फिर भी सब के सब अंधे हैं । सब चुप हैं महान हैं मेरे देश का कानून और सिस्टम ?? कहने भर के लिए ओवैसी पर कोर्ट केस हो गया तो कुछ लोग बहुत प्रसन्न हो रहे है, उन बेचारों को तो इतना भी नहीं पता नहीं होगा कि इंडियन संविधान में गैर हिन्दुओं को विशेषाधिकार प्राप्त है ! विश्वजीत सिंह अनन्त भारत स्वाभिमान दल

अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा -वीर नाथूराम गोडसे भाग – एक

नाथूराम गोडसे के शहीद दिवस 15 नवम्बर के अवसर पर, फाँसी लगने से 5 मिनट पूर्व दिया गया उनका दिव्य संदेश


वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैँने गाँधी जी पर गोली चलायी थी । मैँ मानता हूँ कि गाँधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए । जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीँ था । मैँ किसी प्रकार की दया नहीँ चाहता हूँ । मैँ यह भी नहीँ चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ । यदि अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैँने किया है । यदि वह पुण्य है तो उससे उत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेँरे कार्य को अपराध नही समझा जायेगा । मैँने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है ! मैँने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए ! मुझे इस बात मेँ लेशमात्र भी सन्देह नहीँ की भविष्य मे किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे ।

– नाथूराम गोडसे

नाथूराम गोडसे के 150 बयान सार्वजनिक क्यों नहीं किये जाते ? क्यों मारा गोडसे ने गांधी को ? आखिर सच क्यों नहीं है सार्वजनिक